पुणे (तेज समाचार डेस्क). जैसे-जैसे लोग आधुनिकता का झूठा आवरण ओढ़ कर समाज में विचरण करने लगे है, वैसे-वैसे उनकी सोच भी काफी अमानवीय और स्वार्थपूर्ण हो गई है. महानगरों में संयुक्त परिवार का महत्व लगभग खत्म होने की कगार पर है और घर के बड़े बुजुर्गों को हम बोझ समझने लगे है. यदि वे हमारे जीवन में सहयोगी की भूमिका निभाते है, तो ठीक वरना हमारे ही माता-पिता हमारे लिए बोझ बन जाते है. फिर उनका ठिकाना या तो वृद्धाश्रम होता है या फिर उनकी गांव वापसी कर दी जाती है. हाल ही में पुणे के फैमिली कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि बच्चे संभालना दादा-दादी की जिम्मेदारी नहीं है.
कोर्ट ने कहा कि माता-पिता को अपनी इस धारणा को बदलना चाहिए कि दादा-दादी का दायित्व पोते-पोतियों की देखभाल करना है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बुढ़ापे में पोते-पोतियां दादा-दादी पर बोझ नहीं बनने चाहिए. फेमिली कोर्ट ने कहा कि अगर किसी बच्चे को पालना घर में रखने की जरूरत होती है, तो इसके लिए दादा-दादी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. भरण-पोषण की मांग की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह तलाक का केस नहीं है. फेमिली कोर्ट जज स्वाति चव्हाण ने कहा कि अब ज्यादा महिलाएं शिक्षित हो रही हैं और वे अपने पतियों की तरह काम कर रही हैं. ऐसे में यह असामान्य नहीं है कि उनके छोटे बच्चों को उनकी देखभाल के लिए पालना घर (क्रेश) में रखा गया है.
– सहयोग कर सकते है, लेकिन दायित्व नहीं है
कोर्ट ने कहा कि अपने बच्चों की देखरेख करना माता-पिता का दायित्व है न कि दादा-दादी या नाना-नानी का. वे लोग घर के बड़े होने के नाते माता-पिता को सपोर्ट व उन्हें गाइड कर सकते हैं और बच्चों को पालने-पोसने में मदद कर सकते हैं, लेकिन बच्चों को उन पर बोझ नहीं बनाना चाहिए. दादा-दादी या नाना-नानी को बेबीसिटर नहीं बनाया जा सकता. उन पर इस बात का दबाव भी नहीं बनाया जा सकता कि वह अपने आराम, मनोरंजन और यात्राएं छोड़कर पोता-पोती की देखभाल करें.
कोर्ट ने कहा कि यह बुजुर्ग दादा- दादी का विशेषाधिकार है कि वे अपनी स्वेच्छा से बच्चों की देखभाल एवं उन्हें संभालने की जिम्मेदारी लेते हैं. इससे वे अपनी उम्र, आर्थिक स्थिति, ताकत तथा अन्य गतिविधियों एवं योजनाओं से समझौता करते हैं.
फेमिली कोर्ट में पति से मेंटेनेंस का मामला
- गौरतलब है कि महिला की शादी दो दशक से ज्यादा समय पहले हुई थी. वर्तमान में उसकी उम्र 40 वर्ष से ज्यादा है. महिला ने 2012 में फेमिली कोर्ट में याचिका दायर कर हर्जाना (मेंटेनेंस) मांगा था. उस समय उसके दोनों बच्चे नाबालिग थे और सबसे छोटा 10 साल का था. महिला ने याचिका में आरोप लगाया था कि उसके पति ने उनकी वित्तीय जरूरतों को नजरअंदाज किया. इसके चलते वह अपने पहले बच्चे के जन्म के 4 महीनों के बाद जॉब को फिर से शुरू करने के लिए मजबूर हुई. महिला ने आरोप लगाया कि उसके सास-ससुर ने कुछ ही महीने शिशु की देखभाल की. इसके बाद वे यात्रा पर निकल गए. वे अपने दूसरे बेटे के पास भी गए. इसलिए वह अपने बच्चे को क्रेश में डालने पर मजबूर हुई और इसके लिए भुगतान भी किया. उसने कहा कि उसके पति ने पिछले एक दशक तक बच्चों के खर्च की जिम्मेदारी कभी नहीं उठाई.
- गलत धारणा न पाले माता-पिता
फेमिली कोर्ट ने कहा कि बहुतायत भारतीय परिवारों में यह धारणा व्याप्त है कि दादा-दादी बेबीसिटर का विकल्प हैं. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इसे दादा-दादी पर नहीं थोपा जाना चाहिए. बुढ़ापा बुजुर्ग दंपति के लिए खुद के लिए जीने का समय है. 2012 में अंतरिम आदेश में कोर्ट ने महिला के पति को हर बच्चे के लिए 10-10 हजार रुपए का भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था. उसका पति दूसरे शहर में रहता है.
दोनों पति-पत्नी कमाते हैं. कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में पति को निर्देश दिया कि वह बच्चों की शिक्षा में बराबर का खर्च वहन करे. कोर्ट ने कहा कि वह अपने बेटे के 18 साल के होने तथा बेटी की शादी तक उनको भरण-पोषण का खर्च एवं एरियर देना जारी रखे. कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि पत्नी को बच्चों की अतिरिक्त गतिविधियों एवं आदतों के लिए भुगतान करना चाहिए.