सुदर्शन चक्रधर महाराष्ट्र के मराठी दैनिक देशोंनती व हिंदी दैनिक राष्ट्र प्रकाश के यूनिट हेड, कार्यकारी सम्पादक हैं. हाल ही में उन्हें जीवन साधना गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अपने बेबाक लेखन से सत्ता व विपक्ष के गलियारों में हलचल मचा देने वाले सुदर्शन चक्रधर अपनी सटीक बात के लिए पहचाने जाते हैं. तेजसमाचार . कॉम के पाठकों के लिए ख़ास
पुराने जमाने की एक मशहूर फिल्म है ‘आधी हकीकत, आधा फसाना’. बेहद रोमांचक और सस्पेंस से भरपूर थी यह फिल्म. एक चैनल पर इन दिनों प्रत्येक शनिवार को इसी नाम से एक सीरियल भी दिखाया जाता है. भारतीय राजनीति और मीडिया में इसी प्रकार प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश को लेकर आधी सच्ची और आधी झूठी कहानियां चल रही हैं. समझ में नहीं आता कि किस पर यकीन करें और किस पर नहीं! इस मुद्दे पर भाजपा और विपक्षी दलों के नेता एक-दूसरे पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं. इसमें सच तो यही है कि न मोदी की जान को कुछ होगा, न कभी माओवादी-समर्थकों के कथित पत्र की सच्चाई बाहर आएगी.
विपक्षी कांग्रेस का सीधा आरोप है कि भाजपा ने अपने सबसे बड़े नेता की ब्रांडिंग करने के लिए ही यह चुनावी चाल चली है. मोदी एंड कंपनी के पास वाजिब मुद्दों का जवाब नहीं है, इसीलिए देश का ध्यान असली मुद्दों पर से हटाया और भटकाया जा रहा है. सच तो यही है कि कोई भी सरकारी सुरक्षा (या खुफिया) एजेंसी कभी भी, किसी भी प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़े इस तरह के षड्यंत्रकारी पत्र या बातों को सीधे जनता के बीच ‘वायरल’ नहीं करतीं. लेकिन पीएम की हत्या की साजिश का पत्र जानबूझकर सोशल मीडिया पर वायरल किया गया.
हालांकि मौजूदा घटना से पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विभिन्न तरीकों से कम से कम आठ बार जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं. इनमें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनते ही हिजबुल मुजाहिदीन ने वर्ष 2013 में, वाराणसी दौरे से पहले 2014 में, 2017 में एक बार और 2018 में दो बार ऐसी ही धमकियां मिल चुकी हैं. मगर ‘जाको राखे साइयां, मार सके न कोय!’ मतलब यह कि ऐसा होता ही रहता है और सुरक्षा व्यवस्था कड़ी (पुख्ता) कर दी जाती है. तो सवाल है कि इस बार इस पर हायतौबा क्यों? जांच एजेंसियों की मति मारी गई है क्या? उसने पहले ही नक्सली समर्थकों के कथित पत्र की जांच क्यों नहीं की? क्यों उसने इस पत्र को ‘आधी हकीकत… आधा फसाना’ बना कर रख दिया? क्यों देश को कंफ्यूज किया गया? सवाल यह भी कि पिछली धमकियों पर जांच एजेंसियों ने कितनों पर कार्रवाई की? किसे सजा दी? कितने पकड़ाए? इशरत जहां एनकाउंटर के बाद तो कोई आतंकी भी मोदी की कथित हत्या करने के मामले में न तो पकड़ा गया, न तो मारा गया! आखिर क्यों?
….तो क्या इस पूरे मामले को एक ड्रामा ही माना जाए? अगर यह प्रचार का सस्ता तरीका नहीं, तो और क्या है? अगर यह सहानुभूति पैदा कर देश के मतदाताओं के वोट बटोरने का कार्यक्रम है, तो वाकई यह देश की जनता से धोखा है. क्योंकि आज तक किसी भी प्रधानमंत्री को मिली जान से मारने की धमकी को सार्वजनिक कर उसे आम जनता के लिए बहस का मुद्दा नहीं बनाया गया. अगर नक्सल-समर्थकों से जब्त पत्र में एक प्रतिशत भी सच्चाई है, तो वाकई इसकी उच्चस्तरीय जांच होनी ही चाहिए. ताकि ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ हो सके.
हमारे प्रधानमंत्री की जान देश के लिए बहुत कीमती है. वह कोई जवानों और किसानों की जान नहीं, जो व्यर्थ चली जाएगी! हमारा तो यही मानना है कि अपने निरंकुश शासन के फ्लॉप होने से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए सत्ताधारी नुमाइंदे ही खुद ऐसा जुगाड़ कर रहे हैं, जिससे कि देश-प्रदेश के दलितों, आदिवासियों, किसानों और बेरोजगारों की समस्याओं से लोगों का ध्यान हट जाए, बंट जाए. खुद केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले इस प्रकार की बातों को हवा में उड़ा रहे हैं और मराठा छत्रप पवार तो इस पत्र को ही फर्जी बता रहे हैं. मगर हमारा सवाल तो यही है कि जब किसानों का देशव्यापी आंदोलन चल रहा था, तभी नक्सल-समर्थक का मोदी-हत्या की साजिश वाला पत्र ‘वायरल’ क्यों किया गया? कुछ तो गड़बड़ जरूर है मित्रों…! जरा सोचिए, सामने चुनाव भी है!
(संपर्क : 96899 26102)
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