छतरपुर जिले की राजनगर तहसील में शिक्षित बेरोजगार युवक देशराज यादव ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। खबर छपी कई अखबारों में लेकिन अधिकांश ने इसे आए दिन की क्राइम रिपोर्ट जैसा ही स्थान दिया। आत्महत्या के कारण के आधार पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी कहीं पढऩे को नहीं मिली। हजारों लोगों ने देशराज की आत्महत्या की खबर पढ़ी होगी। तय मानिए कि ज्यादातर लोगों ने बुद्धि पर अधिक जोर डालने की जरूरत तक नहीं महसूस की। कुछ लोग शीर्षक से आगे नहीं बढ़े होंगे, कुछ ने पूरी खबर पढ़ी भी हो पर मनन-मंथन गायब रहा होगा। लोगों का स्वाद बदल गया है। पाठकों के लिए इस तरह की खबरें सामान्य सूचना से अधिक नहीं हैं। जबकि, देशराज की मौत की वजह संवेदनशील और देश-समाज की परवाह करने वालों के लिए अंदर तक हिला देने वाली है। सामान्य एवं पिछड़ा अधिकारी-कर्मचारी संघ के संरक्षक, आईएएस अधिकारी राजीव शर्मा ने अपने फेसबुक अकॉउण्ट में देशराज यादव द्वारा अपनी मां को लिखे पत्र को पोस्ट कर एक बड़ा सवाल उठाया है। उन्होंने लिखा है, इस युवक के आखिरी पत्र को पढ़ कर क्या आपकी आंखें नही भर आ रहीं? वह कहते हैं, देशराज की मौत मध्यप्रदेश में बढ़ रही बेरोजगारी की समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करती है। उसका पत्र यह सोचने पर विवश करता है कि गफलत कहां है? सरकार जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराने और बेरोजगारों का मार्गदर्शन करने में क्यों नाकाम है?
आत्महत्या से पूर्व देशराज ने कागज पर अपना दर्द उतार दिया। उसने लिखा है कि गरीबी के बावजूद मैंने अपनी पढ़ाई की लेकिन अब मेरे पास कोई नौकरी नहीं है। इस जीवन-युद्ध में हारने के बाद मैं यह दुनिया छोड़ कर जा रहा हॅंू। इतना बढ़ा कदम उठाने की वजह है। प्रदेश में संविदा शिक्षकों की भर्ती के विज्ञापन का मैंने सात सालों तक इंतजार किया। मैं समझता था कि चुनावों से पूर्व राज्य सरकार संविदा शिक्षकों की भर्ती का विज्ञापन निकाल देगी किन्तु ऐसा नहीं हुआ। मेरी तरह सैंकड़ों युवाओं ने बी.एड. और डी.एड. करने के लिए पैसा और समय बर्बाद किया है। हम परीक्षा की तैयारी करते-करते थक चुके हैं। जीवन में सफल होने का अवसर नहीं मिलता देख मैं स्कूल में अतिथि शिक्षक के रूप में काम करने लगा था लेकिन वहां इतना वेतन भी नहीं मिलता की दोनों समय की रोटी जुटाई जा सके। देशराज ने आगे लिखा, मैं अपने माता-पिता का सबसे बड़ा पु़त्र हॅूं। पिता नेत्रहीन हैं। अत: परिवार चलाने की जिम्मेदारी मेरी रही है। मैंने सोचा था कि शिक्षक की नौकरी पाने के बाद अपनी परिवार को अच्छे से रख सकूंगा। पांच सालों तक अतिथि शिक्षक के रूप में काम करने के बाद भी मैं सफल नहीं हो सका। पत्र के अंत में देशराज ने अपनी मां से माफी मांगी है और कहा है कि मेरे नहीं रहने पर भी मेरे चार भाई माता-पिता की देखभाल करेंगे।
देशराज की मौत को आत्महत्या की घटना मात्र मानना गलत होगा। उसका अंतिम पत्र बेरोजगार युवकों में बढ़ रही हताशा का अहसास कराता है। राजीव शर्मा सही कहते हैं कि देशराज की मौत बताती है कि एक समाज के रूप में हम असफल हुए हैं। इस युवक ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि वह सात सालों तक कोई नौकरी नहीं पा सका। इससे साबित होता है कि हमारा सिस्टम कितने प्रभावी ढंग से काम कर रहा है? बेरोजगार युवक-युवतियों द्वारा आए दिन अपना जीवन समाप्त कर लेने की घटनाएं सामने आती हैं। यह कहना कठिन है कि सरकार चलाने और चलवाने वालों में से कितने लोग इस तरह की घटनाओं की खबरों का गम्भीरता से ले
रहे हैं। सरकार बेरोजगारों में बढ़ रही आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए क्या कर रही है? तय मानिए कि अधिकांश लोगों को युवाओं द्वारा आत्महत्या की खबरें चौबीस घण्टे बाद याद तक नहीं रह पाती होंगी। देशराज की मौत से उसके परिवार पर गहरा आघात है। एक युवा को इस तरह खोना क्या राष्ट्र के लिए बड़ा नुकसान नहीं है? उसका पत्र सामने आने के बाद क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि संविदा शिक्षकों की भर्ती का मामला शिवराज सरकार ने कहां फंसा रखा है।
पिछले दस-बारह सालों के दौरान मध्यप्रदेश मेें बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप ले लिया है। सन 2005 से 2015 के बीच बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करने के मामलों में 2000 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया था कि सन 2005 में बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करने के 29 मामले हुए थे। सन 2015 यह संख्या 579 पर जा पहुंची। प्रदेश के एक मंत्री राजेन्द्र शुक्ला बेरोजगारी को राष्ट्रीय समस्या बता कर बेरोजगारों की आत्महत्या से लगने वाले कलंक से राज्य सरकार का बचाव करने की नाकाम कोशिश करते दिखे हैं। वह कहते हंै, प्रदेश में कृषि विकास और औद्योगिकीकरण के द्वारा रोजगार के अवसर बढ़ाने के लगातार प्रयास किए गए हैं। इस काम में सफलता मिली है। बेरोजगारी के कारण आत्महत्या किए जाने के बढ़ते मामलों पर उनका यह तर्क थोथा है कि यदि अंदर झांका जाए तो अधिकांश मामलों में आत्महत्या के पीछे कोई दूसरी ही कहानी मिलेगी। दूसरा वर्ग कहता है कि शुक्ला की बातों में कोई दम नहीं है। सच तो यह है कि बेरोजगारी के कारण आत्महत्या के मामले में मध्यप्रदेश का देश में 13वां स्थान है। शिवराजसिंह चौहान सरकार दावा करती है कि बेरोजगारी की समस्या से निबटने के लिए वह उद्यमिता और कौशल विकास के लिए लगातार प्रयास करते रही है। दूसरी ओर आंकड़े स्वयं बता रहे हैं कि राज्य सरकार के तमाम प्रयास ऊंठ के मुंह में जीरा से अधिक नहीं हैं। पिछले तीन सालों के दौरान निजी क्षेत्र/सरकारी/ सार्वजनिक और सहकारिता क्षेत्र में हरसाल मुश्किल से 17600 नौकरियां या रोजगार अवसर ही निकल पाए। स्वयं राज्य सरकार भी एक विधायक के प्रश्न के उत्तर में स्वीकार कर चुकी है कि प्रदेश में बेरोजगारी में 16.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार सन 2016 के अंत तक मध्यप्रदेश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या 11.24 लाख पर पहुंच चुकी थी। कांग्रेस नेता अजय सिंह करते हैं कि प्रदेश के रोजगार कार्यालयों मेें दर्ज बेरोजगारों की संख्या जनवरी 2018 में 2378529 पर पहुंच चुकी थी। शिक्षित बेरोजगारों के एक संगठन बेरोजगार सेना के अनुसार मध्यप्रदेश में युवाओं की संख्या 1.5 करोड़ है। इनमें से आधे युवाओं के पास कोई काम नहीं है या फिर वे अपनी शैक्षणिक योग्यता से विपरीत कोई अन्य छोटा-मोटा काम कर रहे हैं। बेरोजगार सेना के लोगों के इस दावे पर संदेह करने का कोई कारण समझ में नहीं आता। पिछले साल मध्यप्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल ने प्रदेश में पटवारी के 9200 पदों के लिए आवेदन मंगवाए थे। राजस्व विभाग में पहली सीढ़ी वाले इस पर के लिए 10 लाख युवक-युवतियों ने आवेदन किया था। चौंकाने वाली बात यह रही कि कई उम्मीदवार उच्च शिक्षित थे। इनमें से कुछ पीएचडी थे। कला, विज्ञान और तकनीकि के क्षेत्र में स्नातकोत्तर उपाधि धारक उम्मीदवारों की संख्या ही लाखों में बताई गई। विपक्षी दलों के इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकती कि पटवारी पद के लिए उच्च शिक्षित युवाओं की उम्मीदवारी से ही मध्यप्रदेश में बेरोजगारी की भयावह स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा और भी प्रमाण हैं जो बेरोजगारी समस्या की विकरालता की पुष्टि के लिए पर्याप्त माने जाने चाहिए। मध्यप्रदेश में ही 2016 में कांस्टेबल के पद के लिए 9 लाख युवक-युवतियों ने आवेदन किया था। 2015 में फारेस्ट गार्ड के पद के लिए लगभग 6 लाख आवेदन आए थे उनमें सवा लाख उम्मीदवार स्नातक स्तर की योग्यता रखते थे। उनमें पीएचडी और बीई उपाधि धारक तक शामिल थे। ऐसे युवाओं की मानसिक दशा को समझना कठिन नहीं है।
मध्यप्रदेश में सन 2005 से शिवराज सिंह चौहान सरकार है। बढ़ती बेरोजगारी को राज्य सरकार के कुप्रबंधन का नतीजा नहीं मानना चाहिए? एक ओर प्रदेश में बेरोजगारी समस्या का विकराल होता रूप है जिसके कारण हताश युवा आत्महत्या जैसे कदम को उठाने पर विवश हो रहा है, दूसरी ओर राज्य सरकार का एक अदूरदर्शी फैसला है। शिवराजसिंह चौहान सरकार ने राज्य कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 वर्ष से बढ़ा कर 62 वर्ष कर दी। निष्पक्ष आलोचकों का मानना है कि इस फैसले का औचित्य समझ में नहीं आया। शिवराज की ऐसी दरियादिली का वजह क्या है? चुनावी वर्ष में ऐसे फैसले का एक ही कारण, वोटों के लिए दाना डालना हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि मध्यप्रदेश में हर साल 18 से 20 हजार सरकारी और अद्र्धसरकारी कर्मचारी सेवानिवृत्त होते हैं। सरकार ने सेवानिवृत्ति आयु सीमा 62 वर्ष करके हजारों बेरोजगारों युवाओं को नौकरी के अवसर से वंचित कर दिया। करदाताओं को राज्य सरकार से यह सवाल करने का नैतिक अधिकार है कि ऐसे कितने खास लोग हैं जिनको उपकृत करने के लिए सेवानिवृत्ति आयु सीमा बढ़ा दी गई। जानकार कहते हैं, कोई भी सरकार सभी बेरोजगारों को नौकरी नहीं दे सकती लेकिन उसे उपायों और साधनों पर विचार कर फैसला लेना चाहिए जिससे बेरोजगारी की समस्या को कम किया जा सके। हमारे यहां बेरोजगारी की समस्या के पीछे कई फैक्टर जिम्मेदार कहे जा सकते हैं। जेैसे बढ़ती आबादी, रोजगारोन्मुखी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव, छात्रों को स्कूली दिनों से ही कॅरियर के संबंध में मार्गदर्शन नहीं दिया जाना इत्यादि। वोट बैंक की राजनीति के कारण आबादी नियंत्रण के विषय में बोलने से राजनेता बचते हैं। नतीजा यह है कि आज देश की एक अरब तीस करोड़ जैसी विशाल आबादी के लिए आवास, भोजन-पानी के साथ अन्य मूलभूत सुविधाएं जुटाना कठिन होता जा रहा है। इतनी जनसंख्या के अनुपात में रोजगार अवसर पैदा नहीं होने से भी बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है। एक बड़ी समस्या रोजगारोन्मुखी शिक्षा के बजाय डिग्री बांटने की प्रवृत्ति के पनप जाने की है। उचित मार्गदर्शन के अभाव में अधिकांश युवा किसी भी तरह से एक डिग्री हासिल करने की होड़ में देखे जाते हैं।
मध्यप्रदेश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की आमद से अवश्य ही अच्छे परिणाम मिले हैं लेकिन एक बुरी बात कुकुरमुत्ते की तरह ऊग उठे ऐसे कालेजों और कुछ विश्वविद्यालयों के रूप में सामने आई है जिनके पास न तो समुचित संसाधन हैं और न ही वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे पा रहे हैं। राज्य सरकार ने पिछले दो दशक में रेवड़ी की तरह शिक्षा दुकानों के पट्टे बंटवाए। नतीजा विषय विशेष की मांग से कई गुना अधिक डिग्रीधारी पैदा होने लगे। उदाहरण सामने हैं- मध्यप्रदेश में इस समय 21 सरकारी और 181 निजी इंजीनियरिंग कालेज हैं। समझ सकते हैं कि हर साल चालीस-पचास हजार इंजीनियर यहां से निकलते हैं। क्या मध्यप्रदेश इतने इंजीनियरों को रोजगार देने में सक्षम है। ऐसी ही स्थिति बीएड डिग्री के बारे कही जाती है। प्रदेश में 239 बीएड कालेज बताये जाते हैं। इनमें से कितने कालेजों से श्रेष्ठतम स्तर के शिक्षक निकल रहे हैं? उनमें से कितने युवकों को सम्मानजनक वेतन वाली नौकरी मिल पा रही है। बीडीएस और नर्सिंग कालेजों की भरमार ने बेरोजगारों की भीड़ को बढ़ाने में योगदान देना शुरू कर दिया है। वकालत पेश की जरूरत से कहीं अधिक कानूनविद हर साल निकल रहे। वकालत पेशे से जुड़े सैंकड़ों लोगों का जीवन संघर्ष देखकर मन विचलित हो उठता है। एक ताजा खबर के अनुसार मध्यप्रदेश सरकार ने दो साल तक नए आयुष कॉलेजों को मान्यता नहीं देने का मन बना रखा है। यह कदम आयुष कालेजों से निकलने वाले युवाओं को नौकरी नहीं मिल पाना बताया जा रहा है। प्रदेश में अभी ऐसे 54 कालेेज हैँ। सवाल उठता है कि जब इन कालेजों ने निकलने वाले डाक्टरों में से आधों को भी नौकरी दिला पाने की क्षमता नहीं थी तो आंख बंद कर नए कालेजों के मान्यता आवेदन क्यों स्वीकार करते चले गए। कुल मिलाकर सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। सरकार चलाने वाली मंडली के अधिकांश सदस्यों को न तो पाठ्यक्रमों की समझ है न उन्हें रोजगार जैसे विषय से कुछ लेना-देना होता है और न ही वे कुछ सीखना समझना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में व्यवस्था गड़बड़ाएगी ही। बेरोजगारी से परेशान युवाओं में निराशा बढऩे और उनके द्वारा उठाए जा आत्मघाती कदमों के लिए हमारा समाज, हमारी सरकार और शिक्षा प्रणाली सभी बराबर से जिम्मेदार हैं।