देश-विदेश में ‘कोरोना’ से हाहाकार मचा हुआ है. इस महामारी ने आम आदमी का जीना दुश्वार कर दिया है. इसका वायरस अब राजनीति में भी घुस गया है. देश की 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी भी इससे संक्रमित हो गई है. जाहिर है, इस महामारी का कोई इलाज किसी को नहीं मिल रहा है. सियासी गलियारों में इस पर खूब चर्चा हो रही है कि जब-जब कांग्रेस के हाथ से सत्ता छूटती है, तब-तब कांग्रेस टूटती-बिखरती है. दरअसल, कांग्रेस को ‘सत्ता का फेविकोल’ ही जोड़े रखता रहा है. अब सत्ता के इसी फेविकोल को ‘कोरोना’ हो गया है. इसीलिए वह कोमा में दिख रही है. सब कहते हैं कि कांग्रेस को अच्छे इलाज और बड़ी सर्जरी की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो आगे भी ‘सिंधिया’ जैसे प्रकरण देखने-सुनने मिलेंगे.
वर्ष 2014 से ही कांग्रेस पर बीमार हो जाने के इल्जाम लगते रहे हैं. नेतृत्व का बिखराव, भ्रम की स्थिति, वरिष्ठ एवं युवा नेताओं का टकराव और ठोस फैसलों का अभाव… मानो कांग्रेस की परंपरा बन गई है. केंद्र की सत्ता के ‘हाथ’ से फिसल जाने के बाद ही वह मरणासन्न दिख रही है. कभी आईसीयू, कभी डायलिसिस पर तो कभी फुल बॉडी चेकअप के दौर से उसे गुजारना पड़ रहा है. अब तो उसके साथी (दल) भी पूछने लगे हैं, ‘ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लेते क्यों नहीं?’ लेकिन कांग्रेस क्या लेगी बेचारी! राहुल जैसे नेता कुछ देने की स्थिति में नहीं हैं. बार-बार विदेश भाग जाना ही उनकी फितरत है. सोनिया बीमार रहती हैं, ऐसे में वे क्या कांग्रेस का इलाज करेंगी? उधर, कांग्रेसजन ‘डॉक्टर’ प्रियंका से उपचार कराना चाहते हैं, मगर पार्टी को घेरे बैठे बुढ़ऊ उनके खिलाफ हैं. ऐसे में ‘कोरोनामयी कांग्रेस’ का इलाज, लाइलाज दिख रहा है.
सच तो यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को अगर सत्ता की भूख नहीं होती, तो वे ‘महाराजा’ से ‘चौकीदार’ नहीं बनते. बीजेपी में भले ही मोदी और शाह खुद को ‘चौकीदार’ लिखते रहे हों लेकिन विश्व की इस सबसे बड़ी पार्टी में इन दोनों सूरमाओं को छोड़कर बाकी सब ‘चौकीदार’ ही हैं. अब सिंधिया को भी यहां मामूली चौकीदार बनकर रहना होगा. भले ही उन्हें अभी राज्यसभा का टिकट मिल गया हो, फिर मंत्री पद भी मिल जाएगा, …लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया को यहां ‘महाराजा’ का दर्जा या रुतबा कभी हासिल नहीं होगा. भले ही उन्हें कमलनाथ से हुई नफरत के कारण भाजपा के कमल से तात्कालिक प्यार हो गया हो, लेकिन इसे ‘अमर प्रेम’ समझना बड़ी भूल होगी.
अब सवाल है कि सिंधिया प्रकरण के साइड इफेक्ट क्या होंगे? पहला असर तो मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार पर ही पड़ना तय है. फिर राजस्थान का नंबर लग सकता है. यहां सचिन पायलट उपमुख्यमंत्री बनाए जाने पर भी नाखुश हैं. फिर महाराष्ट्र के मिलिंद देवड़ा, संजय निरुपम भी पार्टी की ढुलमुलशाही और अनिर्णय की स्थिति से नाराज हैं. हालांकि महाराष्ट्र में कोई कांग्रेस नेता, न तो सिंधिया जैसा कद्दावर है, ना कोई ऐसा कदम जल्दबाजी में उठाना चाहेगा. फिर भी ‘ऑपरेशन लोटस’ का क्या भरोसा! कब यहां मध्यप्रदेश या कर्नाटक का नाटक दोहरा दिया जाए!
बहरहाल, कांग्रेस की हालत उस ‘यस बैंक’ जैसी हो गई है, जो संकट में है और डूब रही है. सब उसके खाते बंद कर रहे हैं और सिंधिया की तरह अपनी जमा पूंजी (सम्मान) लेकर निकल रहे हैं. फिर उसमें कोई नया निवेश (इन्वेस्टमेंट) भी नहीं हो रहा है, बल्कि साथी दल भी उसे ‘ना’ कह रहे हैं. राज्यसभा चुनाव में तमिलनाडु, झारखंड और बिहार में डीएमके, जेएमएम और आरजेडी ने कांग्रेसी उम्मीदवार का समर्थन करने से साफ इनकार कर दिया है. मतलब यही है कि सत्ता का जहाज जब डूबता है, तो नेता रूपी चूहे ही सबसे पहले भागने लगते हैं. लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश में सक्षम विपक्ष का होना जरूरी है, लेकिन कांग्रेस मर रही है, तो उसे अब कौन बचाएगा?