चलिए, उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। मुख्यमंत्री पद के लिए शिवसेना ने 30 साल पुराने संबंधों को रौंदा दिया। अभूतपूर्व यह रहा कि उसने उन पुराने प्रतिद्वंद्वियों से दोस्ती गांठ ली जो वैचारिक दृष्टि से विपरीत धु्रव माने जाते हैं। सीएम की कुर्सी के लिए शिवसेना का मचलना गजब का रहा। बरबस ही ऐसे शिशु की याद आ गई जो शरीर से छोटा लेकिन चालाकी की मामले में मैच्योर हो गया हो।
विधानसभा चुनावों में मात्र 16.41 प्रतिशत वोट पाने और 56 सीटें जीतने वाली शिवसेना अपने चुनावी-गठबंधन सहयोगी भाजपा पर मुख्यमंत्री पद के लिए दबाव डाल रही थी। भाजपा ने 25.75 प्रतिशत वोट पाए हैं और वह 105 सीटें जीतने में कामयाब हुई है। बहरहाल, यह पुरानी बात हो गई। अब समय उद्धव ठाकरे को बधाई और भविष्य के लिए शुभकामना देने का है। न जाने उनका कब का सपना साकार हुआ है। हल्के-फुल्क कटाक्ष की तो बनती है। निश्चित रूप से कुछ सवाल हर मस्तिष्क में घुमड़ रहे होंगे। क्या उद्धव में सीएम बनने का अरमान बाला साहेब ठाकरे के जीवन काल में जोर मारने लगा था? सम्भवत: पिताश्री का कद, उनका आभामंडल और उनके सिद्धांत आड़े आते रहे होंगे। दिल की बात जुबां तक आने की कभी हिम्म्त जुटा नहीं सकी हो। सत्ता की कामना की पूर्ति के लिए भूमिका गढऩे का काम चार-पांच पहले शुरू कर दिया गया था। मातोश्री के दरबारियों ने पहले आदित्य ठाकरे को अगला मुख्यमंत्री बनाने की बात शुरू की। फिर ढाई-ढाई साल के लिए भाजपा और शिवसेना को सीएम पद देने का दबाव शुरू किया गया। भाजपा नहीं मानी। नतीजा सामने है। पुराने दोस्त नए दुश्मन हो गया और पुराने दुश्मन आज नए दोस्त हैं।
शिवसेना के इतिहास में सन 2019 को कई बातों के लिए याद रखा जाएगा। मसलन, ठाकरे परिवार से पहली बार किसी सदस्य यानि आदित्य ठाकरे ने चुनावी राजनीति में कदम रखा है। ठाकरे परिवार से पहली बार कोई मुख्यमंत्री बना है। इस वर्ष शिवसेना के नजरिये में सीधे 180 डिग्री का बदलाव आया। वह उन राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की शरण में चली गई जिन्हें कभी पानी पी-पीकर कोसा जाता था। शिवसेना ने असहमति और कटुता में अंतर ही नहीं रहने दिया। एक नेता को इतनी छूट दे दी गई कि उसके अनर्गल प्रलाप ने दो पार्टियों के बीच संबंधों को तार-तार करके दिया। एक और अभूतपूर्व नजारा देशवासियों ने देखा। मातोश्री में न जाने कितनी हस्तियां हाजिरी लगाते देखीं जा चुकीें हैं। वाकई,जमाना बदल गया। पहली बार मातोश्री से ठाकरे परिवार का मुखिया बाहर निकल कर राजनेताओं से मिल रहा था। उस दौरान कुर्सी के लिए अंदर की छटपटाहट चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी।
अजित पवार प्रकरण से भाजपा को बड़ा धक्का लगा है। राजनीति के पंडितों का मानना है कि भााजपा धोखा खा गई। इन बातों को गलत नहीं कहा जा सकता कि अजित पवार को एक योजना के तहत देवेन्द्र फडणवीस के पास भेजा गया था। योजना सफल हो गई। ऐसा मानने वालों का अपना मजबूत तर्क है। उनका कहना है कि सीधे-सीधे शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनने पर न तो महाराष्ट्र की जनता का समर्थन हासिल होता और न उसकी धेले भर सहानुभूति मिलती। कुछ राजनीतिक विश£ेषक शरद पवार की तुलना चाणक्य से कर रहे हैं। ऐसी बातों का कोई ठोस आधार या प्रमाण नहीं है। क्या शरद पवार अपने भतीजे की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने का जोखिम उठा सकते हैं? संभावना यह समझ आ रही है कि अति आत्मविश्वास के चलते
अजित ने चाचा को चुनौती दे दी। साथ नहीं मिला और परिवार का दबाव बढऩे से झुकना पड़ा। भागते भूत की लंगोटी तक टपक जाने के भय ने कदम पीछे खींचने पर विवश कर दिया हो। उनके सामने अलग-थलग पड़ जाने की खतरा खड़ा हो गया था। भतीजा लौट आया चाचा के पास और चाचा ने भी बिना कोई ताना मारे उसे माफ कर दिया। शरद पवार के सामने विकल्प क्या था? पिछले 15 सालों से अजित पवार एनसीपी में शरद पवार के उत्तराधिकारी माने जाते रहे हैं। पार्टी में हर स्तर पर उनके सम्पर्क हैं। शरद पवार को अजित पवार की पकड़ और महत्व का अहसास है। अजित के विरूद्ध किसी प्रकार की कार्रवाई का अर्थ उन्हें भविष्य में पार्टी को नुकसान पहुंचाने पर विवश कर देना होता।
गत सुबह मार्निंग वॉक के दौरान कुछ बुजुगों के बीच चर्चा का आनंद लेने का अवसर मिला। उनमें से एक ने कटाक्ष किया, यह लोकतंत्र है या भेड़तंत्र? पलायन के डर से विधायकों के झुंड के झुंड लुकाते-छिपाते फिरना क्या लोकतंत्र है। बुजुर्ग की टिप्पणी में दम तो है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच पकती खिचड़ी की गंध भाजपा के प्रति हमदर्दी बढ़ा रही थी। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार विधायकों के मोबाइल फोन तक ले लिए गए थे। बताया जाता है कि फडणवीस और अजित पवार द्वारा शपथ लिए जाने के बाद निगरानी और बढ़ा दी गई। शुरूआत में घण्टों सन्नाटा रहा। घबराहट दिखी। फिर ड्रामेबाजी शुरू हुई। किसी की आंखें भर आईं, कोई हतप्रभ दिखा, कोई परेशान और कोई तमतमा रहा था। एक पल को मन में सवाल उठा कि नेताओं ने बालीवुड वालों से एक्टिंग कब सीख ली। लोकतंत्र को वाकई भेड़तंत्र सा बनाने में कसर नहीं छोडऩे वाले लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगा रहे थे। यहां सिर्फ एक सवाल है। क्या शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस को अपने विधायकों की निष्ठा पर संदेह था? उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर अघोषित प्रतिबंध क्यों था?
यह सवाल उचित है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन कितने दिन चलेगा? दावे तो पूरे पांच साल राज करने के किए जा रहे हैं। ऐसा संभव भी है। वैचारिक पक्ष हाशिये में डाला जा चुका है। तीनों को अपना वजूद बचाये रखने के लिए सत्ता की जरूरत है। सत्ता से अधिक समय दूर रहने पर राजनीतिक दलों में दल-दल पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। चुनावों से पहले एनसीपी से कई नेता पलायन कर चुके हंै। कई राज्यों में नेतृत्व का टोटा झेल रही कांग्रेस महाराष्ट्र में चौथे नंबर की पार्टी रह गई है। सत्ता से उसे चमक-दमक लौटने की उम्मीद बंधी है। यह निष्कर्ष गलत नहीं है कि यदि भाजपा सरकार बनाने में सफल हो जाती तब तीनों में भगदड़ का खतरा खड़ा हो जाता। फिलहाल यह संकट टला कहा जा सकता है। अत: तीनों को बधाई। भाजपा के लिए भी एक परामर्श-पानी पीओ छानकर, दोस्त बनाओ जानकर!
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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