सूखे से पीड़ित किसानों का आत्महत्या कर लेना एक प्राकृतिक आपदा कही जा सकती है ,लेकिन विद्यार्थिंयों का आत्महत्या करना अधूरी शिक्षा ही कही जायेगी । इसमें माता पिता और शिक्षण प्रणाली बराबर की हिस्सेदार है। संस्कारों का दायत्व माता पिता पर है पर वे जीवन यापन की भाग दौड़ में व्यस्त हैं। जो शिक्षा उन्हें प्राप्त हो रही है उसमे संस्कारों का कोई स्थान नहीं है ,इस शिक्षा से आत्मबल नहीं मिल रहा या फिर कहें की युवा पीढ़ी उसे आत्मसात नहीं करना चाहती कणोकि चारों तरफ भौतिक प्रलोभन बिखरे पड़े है। उनकी शिक्षा में श्रम कर जीवन बनाने के साधन तो है पर श्रम करने का उत्साह नहीं दिख रहा।
आरक्षण के कारण शिक्षा का स्तर निम्न से निम्नतर होता जा रहा है। वे विद्यार्थी जो आरक्षण के अंतर्गत नहीं हैं श्रम कर पड़ते हैं और उत्तम से अतिउत्तम श्रेणी में पास भी हो जाते हैं उनकी शिक्षा अर्थपूर्ण होती है पर वे आरक्षण का शिकार हो जाते हैं और अपना देश त्याग कर विदेशों में जा जा बसते हैं। हम इस बात से अनजान तो नहीं ऐसे हालत में तो देश का विकास रुक जायेगा यह तो राजनीति के हाथों देश का ह्रास है। आरक्षण शिक्षा के स्तर का होना चाहिए जिस से उत्तम स्तर के देश के निर्माता मिल सकें। बहुत वर्ष पहले की बात है अमेरिका के राष्ट्रपति ने कहा था की अमेरिका की तरक्की में भारत के आई आई टी के इंजीनियरों का बहुत बड़ा योगदान है। उस देश के लिए यह वरदान हो सकता है पर हम अपने देश के लिए क्या कहें ,देश क्न्यो पिछड़ रहा है आप भी तो जानते हैं।
शिक्षा पाकर ही हम अपनी संस्कृति और धरम का निर्वाह कर सकते है ,धर्म और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलु हैं यह एक आत्मा की अनुभूति है जो जो हम सब के अन्तः करण में है ,यह उपदेश स्वामी विवेकानंद जी ने पुरे विश्व को दिया था ,पर अशिक्षा या अधूरी शिक्षा के चलते हम ये समाज पाएंगे। हमें जिस प्रकाश की खोज है जिस स्वर्णिम देश की खोज है वह केवल शिक्षा द्वारा ही संभव है। वो भी ऐसी शिक्षा जो सारगर्भित हो ,अच्छे और बुरे का भेद समझने में सक्षम बनाये ,मानव जाति के हित की बात कहे।
शिक्षा अनुशासन संस्कारों का एवं आत्मबल का पर्यायवाची है तो क्या हम शिक्षा के साथ अनुशासन का महत्त्व भी अपनी भावी पीड़ी को समझा पा रहें हैं या कठिन परिस्थितिंयो में अपने आत्मबल को कैसे बनाये रखें ,ये बता रहे है. कर्म न कर अधिकारों की ओट में जीता ये समाज अपने को दूसरों पर निर्भर है ,अपनी असफलताओं का दोषी सरकार को मानता है ,नतीजा समाज का संतुलन ही बिगड़ता जा रहा है ,हम और आप मौन है ,जान कर अनजान है कन्यों।
आधी अधूरी शिक्षा पहले हमें अपने आप से दूर ले गई फिर समाज और देश से। हम दिन पर दिन स्वार्थी होते जा रहे हैं। एक दूसरे के प्रति सहिषुणता रह ही नहीं गई।
शिक्षा अनुशासन का पर्यायवाची है।
शिक्षा का दुरूपयोग मानवता का ह्रास है।
आज की तारिख में आदर ,सम्मान ,कर्तव्य जैसे संस्कार लुप्त आते जा रहे हैं ,जितने अभिभावक दोषी हैं ,शायद यह कहना भी अनुचित न होगा की उतना ही दोषी शिक्षा से जुड़ा कानून भी है , और शिक्षा का व्यापारिक रूप भी है। धर्म के ठेकेदार,शिक्षा के ठेकेदार ,कानून के ठेकेदार सब तत्कालीन लाभ खोजते है ,अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे है। शिक्षक मौन है विद्यर्थी दिशाहीन। मनुष्यों को चार वर्णो में जब बांटा गया था तब हालात कुछ और रहे होंगे पर इस आचरण के चलते आज एक दूसरे के प्रति नफरत ने समाज में अपना आदिपत्य बना लिया है।हर चीज बिकाऊ है ,दुःख की बात तो ये है की जो बिक रहा वो बेखबर है भय दिखा कर लोगों को वशीभूत किया जा रहा है।
पहले बातें हुई ,फिर बहस हुई ,फिर कानून बने ,फिर लोगों ने हो हल्ला किया ,फिर लाठियां बरसी ,गोलियां चली ,पर शिक्षा का उद्देश तो था सद्भावना को लोग समझे मिलजुल कर अपनी देश की तरक्की की सोचें ,पर हो ये रहा है की आज हर जाति अपने को छोटी और दलित आदि आदि घोषित करने में लगी है ताकि बिना मेहनत के सरकारी पदों को हासिल कर अपना भविष्य चमका लें। दिन दुने रात चौगने परिवर्तन हो रहे है और युग द्रष्टा एक एक वर्ष में बदल रहे है ,ऐसे में स्थाई सुधारों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
परिवर्तन जरुरी है क्यनो की ये विकास की पहली सीढ़ी है। यांत्रिक परिवर्तन तो सहज ही अपनाये जा सकते हैं पर हमारे देश की पहचान हमारे संस्कार है। हम और आप देख पा रहे है की बौद्धिक विकास और आध्यात्मिक विकास बड़ी तेजी से पीछे छूटे जा रहे हैं ,लगता है मानो लुप्त हो गए हैं पर हम यदि धयान से देखेँ तो हमें ये अपने आस पास ही मिल जाएँगे ,हो सकता है हमारे ह्रदय में ही मिल जाएँ ,पर हम ढूंढ़ना नहीं चाहते ,समय नहीं है ,रूचि नहीं है ,बोर हो जाते हैं या फिर इसमें भौतिक और आर्थिक लाभ नहीं है।
रह जाती है एक मात्र अभिलाषा ——–आर्थिक रूप से रातों रात सक्षम होने की। इसी होड़ में कई विद्यर्थी अपने माता पिता के सपनो को और भौतिक इच्छाओं को पूरा न कर पाने के कारन कुंठा और हीन भावना का शिकार हो जाते हैं ,ऐसे में या तो वे समाज में आतंक फैलाते हैं ,फलस्वरूप कानून का शिकार हो जाते है या आत्महत्या कर लेते है। यही है देश और समाज के पतन की शुरुवात।
यह यंत्र युग है —दिन दुने रात चौगुने परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। नई नई प्रणालिन्यो अविष्कार हो रहा है ,जिसके कारन भरपूर भौतिक सुखों का संचय भी हो रहा है हम सब इसके साक्षी हैं ,पर क्या के इन सब प्रयोग के लिए हम सक्षम भी हैं ,क्या हम जानते है बिना किसी को नुकसान पहुंचाए हम ये प्रयोग कर सकते हैं ,सच तो ये है की हम सब स्वार्थी हैं।
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )