जिन्दगी : हमारी संस्कृति “देश की सुरक्षा से बढ़कर कुछ नहीं “
नज़र हटी दुर्घटना घटी ,विकास शील देश का पहला और मुख्य कर्तव्य है देश की सुरक्षा ,देश को प्रगति की रह पर ले कर जाना और शांति बनाये रखना या साधारण शब्दों में कह सकते है देश में जान माल की सुरक्षा रखने के लिए युद्ध की अपनी एक विशेष भूमिका है।पूरा भूखंड सैकड़ों देशों में विभाजित है। सबकी अपनी सीमा रेखा है ,अपनी भाषा है अपने रीति रिवाज ,अपना खान पान और अपना रैन है ,जहाँ अपने देश की सीमा रेखा की सुरक्षा के लिए ,नागरिकों में ताल मेल रखने के लिए प्रत्येक देश की अपनज कानून व्यवस्था होती है और उनका उलंघन करने पर दंड के प्रावधान भी निश्चित होते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो यह स्वामित्व की भावना की पराकाष्ठा है। अनाधिकार चेष्टाएँ शांति पूर्ण जीवन में उठते बवंडर हैं। पर इससे बचा भी नहीं जा सकता और यदि हम इसका निवारण करना चाहते हैं तो साम दाम दंड भेद सभी उपाय करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिस्तिथि में युद्ध नाकारा नहीं जा सकता।
भारतीय संस्कृति में बहुत से उदाहरण हैं जिनसे हम कुछ सीख सकते हैं समझ सकते हैं और हम इनसे परिचित भी हैं क्यंकि ये हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। सबसे पहले अयोध्या के राजा राम का उदाहरण लेते है —-जब राजा राम के पिता राजा दशरथ राज कर रहे थे तब भारत की दशा बिलकुल वही थी जो आज है ,आये दिन राक्षस जाति के लोग लोग हमला करते रहते थे जिससे जन साधारण के ह्रदय में हमेशा भय बना रहता था। यज्ञ आदि में वयवधान उत्पन्न करना ,राष्ट्रिय सम्पति का विनाश करना रक्षाक जाती का प्रिय आखेट था —
इसका एक मात्र उद्देश्य था देश की शांति भंग करना ,विकास की गति को रोकना और लूटपाट अदि करना —इससे उनके अपने देश वासियों के मन में यह सुकून बना रहता था की पडोसी देश कमजोर है इसिलए उससे कोई भय नहीं —तब जो आतंक फैला था उसका कोई उद्देश्य समझ नहीं आता। राम को गुरु विश्वामित्र ने युद्ध कला का परीक्षण दिया और ध्यान देने योग्य बात यह है की “राम ” ने त्रेता युग में भी सर्जिकल स्ट्राइक की और जहाँ जहाँ जा कर राक्षस आतंक फैलाते थे उन्हें वहीँ जा कर मारा। पर आतंक तो एक दीमक की तरह है जिसका अंत करने के लिए दीमक को जड़ से ख़तम करना पड़ता है। राम ने वही किया रावण के घर में घुस कर उसका अंत किया और साथ भारत से आतंक का भी अंत किया।
दूसरा उदाहरण कुरुक्षेत्र का है। यहाँ बात आतंकी हमलों की आतंकी विचारधारा की है । धरम की संस्थापना फिर से करने की आवश्यकता कन्यू आ पड़ी। कारन था अनीतिंयो और व्यभिचार का समाज में बढ़ते जाना ,यथा राजा तथा प्रजा —–कौरवों ने आतंकी हमले नहीं किये उन्हों ने देश को जीतने के लिए धर्म की नीतिंयो का विनाश किया।
ये हमले अहंकार और बर्बरता को उकसाने के लिए ,पांडवों का मनोबल भंग करने के लिए उन पर व्यक्तिगत रूप से किये जाते थे। बात एक ही परिवार के बीच की थी पर पूरा भारत चपेट में आ गया। हालात इतने बिगड़े की देश युद्ध की कगार पर आ खड़ा हुआ। एक ही देश की सेना और दो भागों में विभाजित ,दुर्योधन के पक्ष मेंसभी उसकी विचार धारा के लोग युद्ध के लिए त्यार हों ऐसा नहीं था ये लोग सिंहासन के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे थे। दूसरी और युधिष्ठर की सेना के लोग धर्म की संस्थापना चाहते थे ,ऐसी कठिन परिस्तिथि मए किसी तीसरे की आवश्यकता थी जो शांत चित्त कोई हल खोजे यह अनिवार्य था ,और यह भूमिका निभाई कृष्ण ने। कृष्ण ने बाहत प्रयत्न किया पर अहंकार व लोभ ने कोतव पक्ष को अँधा कर दिया था। कृष्ण की शांति वार्ता के सभी प्रयत्न विफल हो गए तो निर्णय युद्ध पर छोड़ दिया गया। नतीजा हम सभी जानते हैं ——पर देश में शांति बनाये रखने का यही एक मात्र उपाय था।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है की दुश्मन को तब तक पराजित नहीं मान लेना चाहिए जब तक की उसे पूरी तरह से खदेड़ न दिया जाये नहीं तो फिर कोई अश्व्थामा उठ खड़ा होगा और फिर आतंक फैलाएगा।
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )