राहुल गांधी ने वायनाड संसदीय क्षेत्र से नामंाकन भर दिया। 15 सालों तक लगातार अमेठी का प्रतिनिधित्व करने के बाद राहुल को किसी अन्य क्षेत्र से भी चुनाव लडऩा क्यों जरूरी लगा? इस सवाल के साथ कुछ और बातें आम आदमी के मन में उठना स्वाभाविक है। मसलन, क्या अमेठी सीट कांग्रेस के हाथ से खिसकने की आशंका राहुल हो गई है? क्या राहुल को स्मृति ईरानी पुख्ता होती पहचान से भय लगने लगा है? पिछले दो दिनों से एक बात और सुनी जा रही है। वायनाड से नामांकन पत्र दाखिल करके राहुल ने अपने कम्युनिस्ट दोस्तों को नाराज कर लिया है। हालांकि राहुल कहते हैं कि वह वायनाड से चुनाव लड़ते हुए कम्युनिस्टों के विरूद्व नहीं बोलेंगे। लेकिन अहम मुद्दा यह है कि केरल के मुस्लिम बहुल वायनाड से चुनाव लडऩे के फैसले को राहुल कैसे सही ठहरा पाएंगे? वायनाड से भी चुनाव लडऩे का जो कारण राहुल ने बता रहे हंै वह कितने लोगों के गले उतर पाया है। उनका कहना है कि वह भारत एक है का संदेश देने वायनाड आए हैं। कांग्रेसी कह रहे हैं राहुल गांधी के इस फैसले से पार्टी को दक्षिण भारत में अपना आधार मजबूत करने में मदद मिलेगी। दोनों की बातों में कोई दम नहीं है। ऐसा कोई संदेश फैलाने का यह क्रांतिकारी विचार उनके दिमाग में पहले क्यों नहीं आया? यह काम वायनाड गए बिना भी किया जा सकता था। रही बात दक्षिण भारत में कांग्रेस का आधार मजबूत करने की तो इसे खोखले तर्क के अधिक नहीं कहा जा सकता। आखिर तीन बार अमेठी से सांसद रहते हुए राहुल गांधी उत्तर प्रदेश कांग्रेस में ही कितनी जान फूंक पाये?
गौर करने लायक बात यह है कि 2004 और 2009 की तुलना में 2014 मेंं राहुल गांधी की जीत का अंतर काफी कम रहा। वह 2004 में 2.90 लाख मतों के अंतर से विजयी हुए थे। 2009 में जीत का अंतर बढ़ा और 3.70 लाख हो गया। लेकिन 2014 में वह स्मृति ईरानी को एक लाख 7 हजार मतों के अंतर से ही पराजित कर सके। लोकसभा चुनावों में विजय के ऐसे अंतर को अधिक नहीं कहा जा सकता। भाजपा और स्मृति ईरानी ने अमेठी से नजर नहीं हटाई। नतीजा सामने है। राहुल गांधी को इस बार अमेठी सुरक्षित सीट नहीं लग रही। वह सुरक्षित सीट की चाह में वायनाड जा पहुंचे। लेकिन, आल इंडिया मुस्लिम लीग के सहारे वायनाड से चुनाव जीतने का राहुल गांधी का यह प्रयास कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकता है। कांग्रेस के इस मित्र दल की छवि जिन्ना की मुस्लिम लीग की वारिस के रूप में रही है। वायनाड में राहुल के रोड शो में आल इंडिया मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं की भारी मौजूदगी और उनके झण्डों ने नकारात्मक संदेश दिया है। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा गिर चुका है।
राहुल गांधी के फैसले को स्मृति ईरानी के हाथों संभावित पराजय का खौफ कहना गलत नहीं होगा। स्म़ति ने ऐसा क्या कर दिया जिससे अमेठी को लेकर कांग्रेस आशंकित हो गई। 1967 से ही अमेठी कांग्रेस का मजबूत गढ़ रही है। सिर्फ दो ही उदाहरण मिलते हैं जब गैर-कांग्रेसी प्रत्याशी अमेठी में चुनाव जीत पाए। 1980 में संजय गांधी यहां से चुनाव जीते थे। 1981, 1984 और 1989 में राजीव गांधी अमेठी से निर्वाचित हुए। राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 और 1996 के सतीश शर्मा और 1999 में सोनिया गांधी इस हाई प्रोफाइल सीट से चुनीं गईं। अमेठी हमेशा से कांग्रेस खासकर गांधी परिवार के सदस्यों के लिए सुरक्षित सीट मानी जाती रही। इस मजबूत तथ्य के बावजूद राहुल का विश्वास क्यों डगमगा गया? बताया जा रहा है कि 2014 में राहुल गांधी से चुनाव हारने के बाद भी स्मृति ईरानी अमेठी में लोगों के सम्पर्क में रहीं। वह वहां अपनी मजबूत पहचान बनाने में सफल हो गईं। अइलोकप्रियता के मामले में वह राहुल गांधी से पीछे नहीं कही जा रहीं हैं। अमेठी से आया फीडबैक कांगे्रस के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था। कांग्रेस के लिए बात चिंता की है। कांग्रेस में राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाता है। दूसरी ओर अमेठी में कोई उनकी विजय की गारंटी देते नहीं मिल रहा। यह उत्सुकता का विषय है कि राहुल गांधी ने अमेठी के साथ-साथ वायनाड को ही चुनाव लडऩे के लिए क्यों चुना? दरअसल, वायनाड की आबादी को ध्यान में रख कर यह निर्णय लिया गया। वहां 48 प्रतिशत मुस्लिम, 10 प्रतिशत ईसाई और शेष हिंदू हैं। केरल के मुस्लिम मतदाताओं पर आल इंडिया मुस्लिम लीग का प्रभाव माना जाता है। बड़ी संख्या में मुसलमान वामदलों का भी समर्थन करते हैं। सम्भवत: कांगे्रस यह मान कर चल रही है कि राहुल गांधी को वायनाड के मुसलमान और ईसाई आंख बंद कर समर्थन देंगे। विरोधी सवाल कर रहे हैं कि राहुल ने वायनाड को ही क्यों चुना? वह दक्षिण की किसी अन्य सीट से भी चुनाव लड़ सकते थे। सोनिया गांधी बेल्लारी से चुनाव लड़ चुकीं हैं।
एक साथ दो स्थानों से चुनाव लडऩे का राहुल गांधी का निर्णय अवश्य अभूतपूर्व उदाहरण नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने 2014 वाराणसी और वडोदरा से चुनाव लड़ा था। लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर और नईदिल्ली से एक साथ चुनाव लड़ चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेई ने 1957 में एक साथ तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। सोनिया गांधी अमेठी के साथ बेल्लारी से चुनाव लड़ चुकीं हैं। एक साथ दो सीटों में चुनाव लड़ चुके राजनेताओं में कांशीराम, मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू यादव और अखिलेश यादव के नाम शामिल हैं। 1996 में जनप्रतिनिधित्व कानून में किए गए संशोधन के बाद कोई भी व्यक्ति केवल दो सीटों पर ही एक साथ चुनाव लड़ सकता है। दोनों सीटों पर चुनाव जीत जाने पर संबंधित व्यक्ति को एक सीट छोडऩी होती है। तब उस सीट के लिए पुन: चुनाव कराने पड़ते हैं। यह सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ हो जाता है। चुनाव आयोग ने 2004 में एक व्यक्ति के लिए एक बार में एक ही सीट पर चुनाव लडऩे का नियम बनाने का सुझाव सरकार को दिया था। इस बारे में अब तक निर्णय नहीं लिया जा सका। किसी को इस सुधारवादी सुझाव में रुचि नहीं है। संसदीय चुनावों पर खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है, उस पर राजनेताओं का एक साथ दो स्थानों से चुनाव लडऩा क्या करदाताओं से वसूले जाने वाले धन का दुरुपयोग नहीं है।
2004 में संसदीय चुनावों में 1114 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2009 में 1483 करोड़ और 2014 में 3426 करोड़ रुपये खर्च हुए। 2019 में संसदीय चुनावों का खर्च कितना होगा इस बात का अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा। देश में गरीबी और बेरोजगारी का रोना रोकर वोटों का जुगाड़ करने वाले राजनेताओं पर एक साथ दो सीटों पर चुनाव लडऩे से रोक लगाने पर विचार होना चाहिए। यह विषय एक याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुकाहै। फिलहाल राहुल गांधी से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि गरीबी, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था को लेकर अपनी चिंताओं पर लोगों का विश्वास जमाने के लिए वह किसी एक ही सीट के लिए चुनाव लड़ कर उदाहरण पेश करें। वह ऐसा कुछ करेंगे नहीं। वैसे अमेठी के साथ वायनाड से चुनाव लडऩे के राहुल गांधी के फैसले पर औचित्य का सवाल उठाने का हक कम से कम अमेठी के मतदाताओं को अवश्य है।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव
एल वी – 08, इंडस गार्डन्स,
गुलमोहर के पास, बाबडिय़ा कलां,
भोपाल – 462039
मोबाइल: 9425097084 फोन : 0755 2422740