प्रथम अध्याय में एक बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गई थी की अर्जुन अपने पक्ष और विपक्ष में खड़ी सेनाएं देख कर दुविधा में पड़ गया था या आम भाषा में कहे तो कह सकते हैं की धर्म संकट में पड़ गया था। कोई भी व्यक्ति जिसे समाज के नियम धर्म में पूर्ण आस्था हो ,जो सच की राह पर चलता हो ,अपने परिवार का ,समाज में रहने वालों के हित का सदा ख्याल रखता हो वो अपने ही परिवार के सदस्यों एवं समाज में रहने वालों को अपने स्वार्थ हित के लिए कैसे उनका वद्द कर सकता है ,दुविधा स्वाभाविक है पर जो मुझे समझ में आता है वो ये है की जो मनुष्य दूसरों के हित को ध्यान में रख कर चलते हैं वे स्वार्थी नहीं हो सकते और स्वार्थी मनुष्य को अपने अहंकार के आगे दूसरे की क्षति दिखाई नहीं देती। यह बात तो अर्जुन की और दुर्योधन की हो गई ,लेकिन यहाँ पर मुख्य पात्र तो कृष्ण हैं ,क्योंकि उनहोंने ही
कृष्ण को युद्ध की अनिवार्यता का ज्ञान कराया और कहा की उसके
द्वारा अहंकार एवं अहंकारी मनुष्य का नाश करना ही धरम युद्ध
माना जायेगा। यह सन्देश कृष्ण ने संसार को दिया पर हम जब यह मानते हैं की युद्ध ही अहंकार और अधरम का विकल्प है तो हमें एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए की युद्ध को तभी विकल्प माना जाये
जब सुधार लेन की सारी चेष्टाँए व्यर्थ हो जाएँ और कोई राह ही ना दिखाई दे –तभी युद्ध हो। महाभारत युद्ध के पहले कई प्रयत्न किये गए की इस विनाश को किसी तरह रोका जाये ,ये परिस्तिथि पैदा ही न हो
स्वयं कृष्ण ने निष्पक्ष हो कर यह प्रस्ताव रखा पर उसे कोरवों ने नहीं माना ,जब स्वार्थ और अहंकार की पट्टी आँखों पर बंधी हो तो साम दाम
दंड भेद अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रहती है अपना ही हित सूझता है।
ऐसे में महाभारत को रोकने की सम्भावना बची ही नहीं और ये ठन गई की युद्ध हो कर ही रहेगा।
संजय जो धृतराष्ट्र को युद्ध के मैदान की
पल -पल की खबर दे रहा था वो भी बीच बीच में यह समझाने का प्रत्यन करता रहा की धृतराष्ट्र इस युद्ध के परिणाम को समझें
और मानव जाति के इस भयानक विनाश को समय रहते रोक लें।
पर ऐसा हो नहीं रहा था।
दूसरे अध्याय के पहले श्लोक में संजय ने कहा –
की युद्ध के मैदान के बीचों बीच खड़े अर्जुन कीआँखों में उदासी छाई है
और ह्रदय पूर्णतया करुणा और अनुराग से भर गया है। इस समय अर्जुन देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था की वो युद्ध का संचालन करने में पूर्णतया असमर्थ है. युद्ध को रोक ले ये उसके हाथ में नहीं था और जो दिख रहा था वो यह था की परिस्तिथियाँ उसके बस में नहीं वो
परिस्तिथियों के हाथों मजबूर है ,उसमें फंसा है। दिल कुछ और कह रहा है और धर्म कुछ और —-“अर्जुन की समझने की शक्ति शून्य हो गई “
ऐसा प्रतीत हो रहा था।
अर्जुन अपने मन की दुविधा कृष्ण से कहते जा रहे हैं
और कृष्ण बिना कुछ कहे ,बोले उसकी व्यथा रहे हैं। जब अपने मन की व्यथा कहते कहते अर्जुन निढाल हो गया तो कृष्ण समझ गए की यही उचित अवसर है अर्जुन को उचित राह दिखाई जाये। जो परिस्तिथि उस समय अर्जुन की थी उसमें कोई भी व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है।
युद्ध करना अनिवार्य है ,युद्ध करने की क्षमता भी है ,धर्म की रक्षा वा पालन का प्रश्न है पर मन विचार हींन होता जा रहा है और शरीर
भी शिथिल पड़ गया है। यहाँ अर्जुन की विचार शक्ति शून्य पर पहुँच
जाती है। श्री कृष्ण के लिए यह वो अवसर था जब वे अर्जुन का
उचित मार्ग दर्शन कर सकते थे। धर्म की रक्षा के लिए उसे प्रेरित कर सकते थे। जब कोई अपने विचरों से शून्य हो जाये तो दूसरे की सलाह
का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वो दत्तचित्त हो कर बात को सुनता समझता है। सावधान रहें ऐसे में लोग अनुचित सलाह से भी प्रभावित हो जाते हैं। पर यहाँ तो स्वयं श्री कृष्ण हैं। इस कठिन परिस्तिथि में
कृष्ण ने जो उपदेश दिया वोसर्वथा धर्म की रक्षा के लिए था और
धर्म के अनुकूल भी था और जन सुखाय भी। आज भी हजारों सालों के बाद गीता के उपदेश उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने तब थे। श्री कृष्ण
ने जो कहा वो परिवार विशेष की समस्या नहीं थी ,वो मानव जाति
के स्वाभाव का विश्लेषण था ,व्याख्या थी ,समस्या थी जो महाभारत काल से पहले भी थी और बाद में भी थी और आज भी है।
स्वामी चिन्मयनन्दा जी ने कहा है –“to get
ourselves overridden by our life”s circumstances is to ensure disastrous failures on all occasions. Only a weakling, who allows himself to be saddled with the occasions, can be victimized by the outer happening. Arjun in his present
neurotic condition has become a slave to the outer challenge .”
संजय की सुचना जो वो ध्रितराष्ट्र को दे रहा था वो इस श्लोक में स्पष्ट कर देता है की अर्जुन जैसे महान योद्धा का भी ह्रदय कुरुक्षेत्र का दृश्य देख कर हाहाकार कर उठा ,युद्ध की कल्पना मात्र से
वह दहल उठा उसकी सूखी आँखों में दुःख की घटाएँ छा गईं।
कोयंबतूर के स्वामी सरस्वती जी ने कहा है —“Because Arjun
was a man of discipline,Arjun diid not allow tears to flow .”
अर्जुन दुखी हो अपने हथियार डाल देता है ,
पर यह कहना अधिक उचित होगा की वो भावी संभावनाओं से इतना अधिक व्यथित हो जाता है की उसका सारा शरीर शिथिल पड़ जाता है और उसके हाथ से शस्त्र छूट जाते हैं ,विचार और भय शून्य हो जाते हैं शब्द मानो लोप हो गए। कृष्ण अब तक मौन थे ,उनहोंने अर्जुन को अपनी व्यथा कहने का –दुविधा और असमंजस में घिर जाने की व्यथा
का ,अपनों का ही संहार कर के राज्य पाने का क्या औचित्य है –आदि आदि। ये सब बातें कृष्ण ने बहुत तन्मय हो कर सुनी। जब अर्जुन अपनी पूरी बात कह चूका तो श्री कृष्ण ने अपना मुंह खोला और सबसे प्रथम अर्जुन को उसके आर्य होने का एहसास दिलाने का प्रयास किया।